Monday, January 11, 2010

Alok da!

( आलोक दा बायें से प्रथम, प्रबोध दा दायें से प्रथम 9 फरवरी 1992)
आदरणीय भाईसाहब
सादर चरण स्पर्श
कल बहुत कुछ कहना चाहते हुये भी बहुत कम कह पाया था, इस बात का मलाल नही है । अक्सर हम जब बहुत अधिक कहना चाहते है तब कुछ भी नही कह पाते । आज डाक्टर बच्चन की कविता का जबाव मै कविता में ही दे रह हूं, बिना अधिक प्रयास के कुछ शब्द यूं ही पद्यबद्ध कर दिये है, यह आवश्यक नही कि मेरे हर शब्द में कुछ अर्थ निहित हो - आपके लिये यहां एक मिनट पहले लिखी पंक्तियां सम्मिलित कर रहा हूं –

हे खग, हे इस जग के नभचर
किसने तुमको पहचाना है
उड़ जाते हो फुर्र से ऊंचे
कहां पकड़ में फिर तुम आते
समय तुम्हारे साथ उड़ चला
क्या तुमने यह नही माना है ।

पंख अगर होते मेरे भी
तुम से मिलने नभ में आता
बैठ कहीं एक डाल पे मै भी
अपने मन की कथा सुनाता

पर कहां कहीं यह संभव जग में
मिल पाना मिल कर ना जाना
आया है जो प्राणी जग में
उसको है एक दिन उड़ जाना
लगा रहा है मेला जग में
यह मेले में खोकर पहचाना ।


अभय शर्मा
12 जनवरी 2010
आदरणीय भाई साहब
सादर चरण स्पर्श

पिछले कुछ दिनों से मै जो भी कहना चाह रहा था वह सब मेरी अपनी कहानी होते हुये भी उस भाई की कहानी भी है जो आज हमारे बीच न होते हुये भी मुझे बेहद याद आता है - वास्तव में अगर मै यहां इतनी अधिक निकटता से लिखता हूं तो उसमें इस बात का समावेश अवश्य ही है कि आप के अंदर मै आलोक दा को देखता हूं - आलोक दा के प्रति (जन्म 11 जनवरी 1955 मृत्यु 18 मार्च 1994)

कहां चले गये हो तुम
जहां में हमको छोड़ के

कहां कभी मिलोगे तुम
किसी गली के मोड़ पे

कहो किसे कहूं कि तुम
चले ये नाते तोड़ के

सोचता हूं क्या थे तुम
जब तार सारे जोड़ के

भाई से बढ़कर थे तुम
संसार की इस होड़ में

जब भी याद आते हो तुम
बस रोता हूं दिल मरोड़ के ।

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जानता हूं
अच्छा नही,
यूं इस तरह से याद करना
यूं बेपनाह प्यार करना
या फिर से एक फरियाद करना

जानता हूं
लौट कर ना आ सकोगे
फिर गीत ना संग गा सकोगे
ना फिर कटेंगें रात-दिन
जैसे कटे थे एक पल छिन
भूल जाना ही भला है
पर भूल पाता हूं कहां मैं ।

अभय शर्मा
11 जनवरी 2010



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